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पुष्या॒त्क्षेमे॑ अ॒भि योगे॑ भवात्यु॒भे वृतौ॑ संय॒ती सं ज॑याति। प्रि॒यः सूर्ये॑ प्रि॒यो अ॒ग्ना भ॑वाति॒ य इन्द्रा॑य सु॒तसो॑मो॒ ददा॑शत् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

puṣyāt kṣeme abhi yoge bhavāty ubhe vṛtau saṁyatī saṁ jayāti | priyaḥ sūrye priyo agnā bhavāti ya indrāya sutasomo dadāśat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पुष्या॑त्। क्षेमे॑। अ॒भि। योगे॑। भ॒वा॒ति॒। उ॒भे इति॑। वृतौ॑। सं॒य॒ती इति॑ स॒म्ऽय॒ती। सम्। ज॒या॒ति॒। प्रि॒यः। सूर्येः॑। प्रि॒यः। अ॒ग्ना। भ॒वा॒ति॒। यः। इन्द्रा॑य। सु॒तऽसो॑मः। ददा॑शत् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:37» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्युद्विद्याविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (सूर्य्ये) सूर्य में (प्रियः) कामना करनेवाला (अग्ना) अग्नि में (प्रियः) कामना करता हुआ (भवाति) प्रसिद्ध होवे तथा (क्षेमे) रक्षण में और (योगे) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लक्षण में (अभि) सन्मुख (पुष्यात्) पुष्टि करे तथा (वृतौ) आच्छादन करने में (उभे) दोनों (संयती) मिली हुइयों का जानकर (भवाति) प्रसिद्ध होवे और (सुतसोमः) एकत्र किया ऐश्वर्य्य जिसने ऐसा जन (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य की वृद्धि के लिये (ददाशत्) देवे वह जन शत्रुओं को (सम्, जयाति) अच्छे प्रकार जीते ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि आदि विद्या की कामना करते हुए योगक्षेम के साधन में चतुर, दाता और न्याय में प्रीति करनेवाले होवें, वे ही दुष्टों को जीतने को समर्थ होवें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, शिल्पी, विद्वान् और युवावस्था में विवाह का वर्णन, शीघ्र वाहन का चलाना और बिजुली की विद्या का वर्णन किया, इस से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्युद्विषयमाह ॥

अन्वय:

यः सूर्य्ये प्रियोऽग्ना प्रियो भवाति क्षेमे योगेऽभि पुष्याद् वृतावुभे संयती विज्ञाय भवाति सुतसोमः सन्निन्द्राय ददाशत् सः जनः शत्रून् सं जयाति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुष्यात्) पुष्टिं कुर्य्यात् (क्षेमे) रक्षणे (अभि) आभिमुख्ये (योगे) अप्राप्तस्य प्राप्तिलक्षणे (भवाति) भवेत् (उभे) (वृतौ) संवृतौ आच्छादने (संयती) सम्मिलिते (सम्) (जयाति) जयेत् (प्रियः) (सूर्य्ये) सवितरि (प्रियः) कामयमानः (अग्ना) अग्नौ (भवाति) भवेत् (यः) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्योन्नतये (सुतसोमः) निष्पादितैश्वर्य्यः (ददाशत्) दद्यात् ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्न्यादिविद्यां कामयमाना योगक्षेमसाधने कुशला दातारो न्यायप्रिया भवेयुस्त एव दुष्टाञ्जेतुं शक्नुयुरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रशिल्पिविद्वद्युवावस्थाविवाहवर्णनं सद्यो यानचालनं विद्युद्विद्यावर्णनं च कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थर् - जी माणसे अग्नी इत्यादी विद्येची कामना करणारी, योगक्षेमाच्या साधनात चतुर, दाता व न्यायी असतील तर तीच दुष्ट माणसांना जिंकण्यास समर्थ असतात. ॥ ५ ॥